अलफ़ाज़-ए-उर्दू : मेरी प्यारी उर्दू कलम
अलफ़ाज़-ए-उर्दू : मेरी प्यारी उर्दू कलम
इस ज़ीस्त में काश कोई मेरा होता,
हमारे बीच ना कोई इख़्तिलात होता,
होता वो इंसान बडा हम-नफ़्स मेरा,
शहर-ए-दोस्ती का मैं शहरयार होता,
साथ में बैठकर देखते हम उस शफ़क़ को,
दोस्ती के मयखाने में मैं बडा बदमस्त होता,
रहता मैं हमेंशा उसके लिए दस्तियाब,
वो शबाब दोस्ती का शायद मुनव्वर होता,
बहुत होती मसाइब बीच हमारे लेकिन,
कज़ा के दिन भी मक्दूर दोस्ती का होता,
नहीं लिख सकता अब मैं इस मौजू-ए-दोस्ती पर,
जब भी होता दोस्ती-ए-यौम-ए-जमहूरिया होता
Written By Shubham Dave
बरदाश नहीं होता
तेरा मुझसे यूँ खफा रहना बरदाश नहीं होता,
तेरा मुझसे यु जुदा रहना अब बरदाश नहीं होता,
नहीं आता मुझे अब कोई खवाब तेरा,
यु जूते वादों का शामियाना अब बरदाश नहीं होता,
बहुत टूट चूका हु अन्दर से में अब तो,
तेरा चहेरा मुझे अब बरदाश नहीं होता,
जेहेन में दबी आग-ए-नफरत को अब दबी ही रहने दो,
टिल टिल दिल का टूट जाना अब बरदाश नहीं होता,
नहीं है इंतज़ार तेरा अब जिन्दगी में लौट आने का,
पहली वस्ल में यु ज़लील होना अब बरदाश नहीं होता,
जबसे तुमसे मिला तब से तुमसे प्यार हो गया,
हर बार यु प्यार की आग में जल जाना अब बरदाश नहीं होता,
न तो में लिखना भूल सकता हु और ना ही तुजे,
तुजे भूल जाना मेरी कलम को अब बरदाश नहीं होता.
Written By Shubham Dave
कुछ अल्फाज़ दोस्ती के नाम
दोस्तो की महेफिलें क्या लाजवाब थी,
हाथ में चाय की प्याली थी और साथ में यारों की यारी थी,
जब कभी मिलेंगे हम अगली दफा,
तब कहोगे, भाई वो यारी हनें जान से प्यारी थी
Written By Shubham Dave
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